समय समय पे समाज को सुदृढ़ और एक करने के लिए सब का साथ सबका विकास की परिभाषा दिया जाता रहा है पर अफसोस की ये बाते सिर्फ राजनीति संगोष्ठी और सम्मेलन में गुंज के रह जाता है,
पिछले दो दशकों में भारत में लोकतांत्रिक संस्थाओं की रूपरेखा में क्रमिक, लेकिन लगातार बदलाव आया है पर मुस्लिम समुदाय जहाँ था उससे भी नीचे चला गया जहाँ कांग्रेस, सपा, राजद, जदयू ने मुसलमानों को सिर्फ आलू की तरह इस्तेमाल किया वही बीजेपी ने पसमंदा मुसलमानों का नाम का डंका बजा कर सिर्फ वोट बैंक की राजनीति की और पसमंदा मुसलमानों के नाम को बेच दिया, मुसलमानों को वास्तव में जिस तरह से भारत में लोकतंत्र ने काम किया है वह आधुनिक भारत के संस्थापक वास्तुकारों की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा है। हालाँकि, मेरा मानना है कि यह इस देश के लोग ही हैं जिन्होंने मुख्य रूप से लोकतंत्र को जीवित रखा है (विभिन्न प्रकार के खतरों के बावजूद भी)। यदि कोई पूरे भारत में, शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में मतदाताओं की उपस्थिति पर विचार करता है, तो उसे पता चलता है कि वोट देने के लिए कतार में खड़े लोगों में बड़ी संख्या गरीबों और मुस्लिम पसमंदा व वंचित लोगों की है। उनका मानना है कि उनका वोट ही उनकी ताकत है। और ये ही भारत में लोकतंत्र की ताकत का सबसे बड़ा स्रोत हैं। वे लोकतंत्र चाहते हैं क्योंकि उनका मानना है कि इसने उन्हें कई मोर्चों पर सशक्त बनाया है। दूसरी ओर, प्रभावशाली वर्गों, अभिजात वर्ग और उच्च जातियों ने गरीबों, कमजोरों और धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुस्लिम समुदाय को वंचित करके लोकतांत्रिक संस्थानों को अपने पक्ष में लगातार हेरफेर किया है। इन शक्तिशाली खिलाड़ियों की राजनीति में जबरदस्त उपस्थिति से पता चलता है कि वे राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था पर अपनी पकड़ ढीली करने के लिए तैयार नहीं हैं। हिंसा का उपयोग, चुनावों में हेराफेरी, पार्टी के नामांकन, ई वी एम में हेरा फेरि के साथ साथ अनुपातहीन हिस्सेदारी और सांप्रदायिक आधार पर समाज का विभाजन राजनीतिक सत्ता बनाए रखने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले कुछ प्रमुख तरीके हैं। दशकों से, सरकार की सशक्तिकरण और गरीबी उन्मूलन योजनाओं के कई कदम और उनके परिणामस्वरूप होने वाले सामाजिक और आर्थिक लाभ गरीबों और हाशिये पर पड़े लोगों तक नहीं पहुंचे हैं। इस स्थिति की वास्तविक हकीकत जानने के लिए केवल भारत में सामाजिक और आर्थिक असमानता पर नजर डालनी होगी, हमने इस संदर्व में छानबिन की तो पता चला की एस सी एस टी आरक्षण समाज में सामाजिक स्तिथि को देखकर दिया गया पर अफसोस की उस वक़्त के मंत्री मंडल और संविधान के कल्पना को साकार करने वाले डॉक्टर भीम राव अंबेडकर साहब के साथ मुस्लिम रहनुमा मौलाना आज़ाद साहब को भी ये न दिखा की अगर हिंदुओं में चमार, दुसाध, नाई मेहतर, धोबी, बुनकर, जुलाहा, है तो ये सभी जात मुसलमानों में भी होता है पर संविधान में पसमंदा मुसलमानों को नज़र अंदाज़ करके सिर्फ हिंदू दलित यानी पसमंदा को आरक्षण दी गई, जिस कारण आज पसमंदा मुसलमानों की हालात बद से बदतर हो गया है ये मैं नही कहता बल्कि सच्चर कमिटी और बहुत सारे शोध बताता है,
और फिर भी, यह स्थिति इरादे या प्रयासों की कमी के कारण नहीं है क्योकि पसमंदा मुस्लिम को तो उस कड़ी में रखा ही नही गया, हमने एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपनी यात्रा शुरू की थी पर अफसोस की मुस्लिम समुदाय का स्वतन्त्रता सिर्फ किताब के पन्नो और सरकारी कानूनी दाव पेंच में उलझ कर रह गया,
लेखक: इरफान जामियावाला, मुंबई।।