जामिया के प्रसिद्ध समाज सेवक इरफान जामियावाला मिले महात्मा गॉंधी के पोते तुषार गाँधी से और बतख मियाँ अंसारी पे फिल्म बनाने की बात की,
“देशभक्ति का असली चेहरा: बतख मियाँ अंसारी और पसमांदा समाज को इरफान जामियावाला का संदेश” बहुत जल्द बनेगा बतख मियाँ अंसारी पे एक फिल्म…
कहते है समाज को गुलामी की सोच से आज़ाद कराने में मुख्य भूमिका ईमंदारी, देश प्रेम और ईमान है उसी इमान को ताज़ा किया है आज के युग के पसमांदा मुसलमानों का सिपाही बतख मियां अंसारी, जिन्होंने गाँधी को मरने से बचाया फिर अंग्रेजो ने उनके उपर कहर बरपा दिया, जब देश आज़ाद हुआ तो भारत के प्रथम राष्टृपति श्री डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने बतख मियाँ अंसारी के इस देश भक्ति से खुश होकर उनको 30 बीघा ज़मीन देने का एलान किया पर अफसोस वो सरकारी ज़मीन बतख मियाँ को क्या उनके चौथे पीढ़ी को आज तक नही मिला,भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में ऐसे कई मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्हें मुल्क को आजाद होने के बाद भुला दिया गया. उन्हीं में से एक थे बतख मियां, जिन्होंने बिहार के चंपारण में महात्मा गांधी की जान बचाई थी.
हिन्दुस्तान की जंग- ए -आज़ादी की तारीख में बहुत सारे ऐसे मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्हें आज़ादी के बाद भुला दिया गया. उनकी कुबार्नियों को नजरअंदाज किया गया. ऐसे ही स्वतंत्रता सेनानियों में एक नाम शामिल है बिहार के चंपारण के रहने वाले बतख मियां का. शायद बतख मियां न होते तो आज हमारे सामने महात्मा गांधी का इतिहास नहीं होता है. बतख मियां ने महात्मा गांधी को जहर देकर मारने की अंग्रेज अफसरों की साजिश को नाकाम कर दिया था.
महात्मा गांधी की हत्या करने की ब्रिटिश नील बागान मालिकों की साजिश को नाकाम करने वाले बतख मिया अंसारी का जन्म 1867 में बिहार प्रदेश के मोतिहारी जिले में हुआ था. उनके पिता मोहम्मद अली अंसारी थे.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने बिहार में ब्रिटिश नील बागान मालिकों द्वारा किसानों पर किए जा रहे अत्याचारों की शिकायत की जांच के लिए महात्मा गांधी को बिहार के चंपारण जिले में भेजा था. कई इतिहासकार मानते हैं कि दक्षिण अफ्रिका से भारत आने के बाद महात्मा गांधी का यह पहला ऐसा दौरा था, जिसमें वह अंग्रेजों से सताए हुए लोगों की व्यथा सुनने और उसे देखने गए थे.
चूंकि ब्रिटिश बागान मालिकों को डर था कि जांच में उनके अत्याचारों का खुलासा हो जाएगा, इसलिए उन्होंने गांधीजी को जहर खिलाकर उन्हें मारने की साजिश रची थी. उन्होंने यह भी सोचा कि अगर खाना कोई भारतीय परोसेगा तो उनकी पोल नहीं खुलेगी. इसलिए इस काम के लिए बतख मिया अंसारी को चुना गया, जो उस वक्त ब्रिटिश सरकार में एक अदना-सा मुलाजिम थे.
जब हम भारत की आज़ादी की गाथा पढ़ते हैं, तो अक्सर वही नाम सामने आते हैं जो इतिहास की मुख्यधारा में स्थापित हैं – गांधी, नेहरू, भगत सिंह, मौलाना आज़ाद। मगर इसी इतिहास की परछाइयों में दबे रह जाते हैं वे लोग, जिनका योगदान न सिर्फ बहादुरी भरा था, बल्कि भारत के हाशिये पर खड़े समाजों की आत्मा से उपजा हुआ था। बतख मियाँ अंसारी ऐसे ही एक योद्धा थे – एक पसमांदा मुसलमान, एक जुलाहा, और एक सच्चे देशभक्त।
बतख मियाँ अंसारी: एक अनसुना शहीद
1908 का दौर था। बंगाल में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह तेज हो रहा था। खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी नामक दो युवा क्रांतिकारियों ने अंग्रेज मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड को बम से उड़ाने का प्रयास किया। किंग्सफोर्ड तो बच गया, पर दो अंग्रेज महिलाएं मारी गईं। खुदीराम भागे, और मुजफ्फरपुर के एक ग़रीब बुनकर बतख मियाँ अंसारी ने उन्हें अपने घर में शरण दी।
बतख मियाँ को पता था कि वे एक ऐसे नौजवान को छिपा रहे हैं जिसे अंग्रेज सरकार “आतंकवादी” कह रही है। फिर भी उन्होंने इंसानियत, इंकलाब और देशभक्ति को चुना। पुलिस को भनक लगी, बतख मियाँ गिरफ़्तार हुए, बेरहमी से पीटे गए, दुकान जलाई गई और उनकी रोज़ी-रोटी खत्म कर दी गई। लेकिन उन्होंने एक शब्द नहीं कहा।
उनका जुर्म? एक स्वतंत्रता सेनानी को रोटी देना।
देशभक्ति का पसमांदा चेहरा
बतख मियाँ अंसारी जैसे नाम यह साबित करते हैं कि पसमांदा मुसलमान केवल “पीड़ित” या “निर्धन” ही नहीं रहे, बल्कि उन्होंने इस देश के लिए कुर्बानियाँ दी हैं, जो मुख्यधारा के इतिहास ने उन्हें कभी नहीं लौटाईं।
पसमांदा समाज के लोग – नाई, जुलाहा, कुजड़ा, धोबी, मीरासिन, मल्लाह – हर दौर में देशभक्त रहे हैं, लेकिन उन्हें मुसलमानों का प्रतिनिधि मानने की बजाय हाशिये पर धकेल दिया गया।
इरफान जामियावाला का संदेश: ‘अब अपनी कुर्बानी को पहचानो’
आधुनिक पसमांदा आंदोलन के विचारक इरफान जामियावाला ने बतख मियाँ की शहादत को पसमांदा समाज के लिए एक आत्मचेतना की चिंगारी कहा है। वे कहते हैं:
“बतख मियाँ ने रोटी दी थी एक क्रांतिकारी को, लेकिन बदले में खो दी थी अपनी दुकान, अपना जीवन। क्या हम उनके वारिस हैं या बस बेबस तमाशबीन?”
इरफान जामियावाला के मुख्य संदेश:
- अपने नायकों को पुनः खोजो
इतिहास में सिर्फ अशराफ (सैयद, शेख, पठान, मुगल) की ही नहीं, पसमांदा वीरों की भी पहचान करो। - शहीदों की विरासत का राजनीतिक मूल्य समझो
जो समाज अपनी कुर्बानी नहीं गिनता, वह सत्ता में हिस्सा नहीं पाता। - शिक्षा और नेतृत्व में भागीदारी बढ़ाओ
बतख मियाँ की कहानी को स्कूलों में पहुंचाओ। पसमांदा युवाओं को इतिहास में अपनी जगह जाननी चाहिए। - CSR, वक़्फ़ और सामाजिक संस्थाओं से बतख मियाँ फाउंडेशन की स्थापना करो
ताकि पसमांदा समाज का अपना संग्रहालय, शोध केंद्र और शहीद स्मारक हो। - धर्म के नाम पर ठगे जाने से बचो
बतख मियाँ ने हिंदू क्रांतिकारी को बचाया, इससे स्पष्ट है कि पसमांदा समाज की देशभक्ति मज़हब से नहीं, इंसानियत और हक़ से जुड़ी है।
निष्कर्ष: एक नई चेतना की शुरुआत
बतख मियाँ अंसारी केवल एक नाम नहीं, बल्कि पसमांदा समाज के खोए हुए आत्म-सम्मान का प्रतीक हैं। वे हमें याद दिलाते हैं कि हमारी पहचान “किसी के नीचे” नहीं, बल्कि “अपने संघर्ष से बनी हुई” है।
आज जब देशभक्ति को एक खास रंग में रंगने की कोशिश हो रही है, तब बतख मियाँ की याद हमें यह सिखाती है कि देशभक्ति न जाति देखती है, न मज़हब – वह केवल इंसान का जमीर देखती है।
इरफान जामियावाला का संदेश स्पष्ट है:
“बतख मियाँ जैसे लोगों को याद करना सिर्फ इतिहास नहीं, बल्कि पसमांदा राजनीति और अस्मिता की मिसाल है…
लेखक: इरफान जामियावाला
जामिया अल्मुनि, समाज सेवक, लेखक
