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प्रस्तावना:

बिहार की राजनीति में सामाजिक न्याय की धारा को आगे बढ़ाते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पसमांदा मुसलमानों के हक और उनकी स्थिति को बेहतर बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है – बिहार पसमांदा आयोग का गठन। यह आयोग राज्य में पिछड़े मुस्लिम समुदायों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति का आकलन कर उनके विकास के लिए योजनाएं बनाने में मदद करेगा।

पसमांदा मुसलमान कौन हैं?

“पसमांदा” एक उर्दू शब्द है, जिसका अर्थ होता है ‘पीछे छूटे हुए’। यह शब्द उन मुस्लिम जातियों के लिए प्रयुक्त होता है जो सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर हैं। इनमें शेख, सैयद, पठान जैसी ‘अशराफ’ जातियों के विपरीत, कुली, दर्जी, नाई, धुनिया, जुलाहा, कसाई, हलालखोर, बेलदार, माली जैसी जातियाँ शामिल हैं।

भारत और बिहार में मुसलमानों के बीच सामाजिक विभाजन की यह सच्चाई लंबे समय से मौजूद रही है, लेकिन राजनीतिक विमर्श में यह सवाल बहुत देर से आया।

बिहार में पसमांदा मुसलमानों की जनसंख्या:

बिहार में कुल मुस्लिम जनसंख्या लगभग 17% है (2021 के अनुमान अनुसार)। इसमें से लगभग 80% से अधिक मुस्लिम पसमांदा समुदायों से आते हैं। यानी कुल आबादी के हिसाब से लगभग 13.5% से 14% लोग पसमांदा मुस्लिम हैं।
पसमांदा आयोग का गठन: उद्देश्य और कार्यक्षेत्र

नीतीश कुमार की अध्यक्षता वाली बिहार सरकार ने 2024 में पसमांदा आयोग के गठन की घोषणा की। इसका उद्देश्य:

  1. पसमांदा मुस्लिम समुदायों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का अध्ययन करना।
  2. शैक्षिक पिछड़ेपन की पहचान कर समाधान सुझाना।
  3. रोज़गार, स्वास्थ्य, आवास जैसी योजनाओं में पसमांदा समुदाय की भागीदारी बढ़ाना।
  4. आरक्षण नीति और अन्य कल्याणकारी योजनाओं में सुधार के सुझाव देना।
    यह आयोग एक फैक्ट फाइंडिंग और सलाहकारी निकाय होगा, जिसकी सिफारिशों के आधार पर सरकार योजनाएं बनाएगी।

नीतीश कुमार की राजनीति और पसमांदा एजेंडा:

नीतीश कुमार लंबे समय से सामाजिक न्याय की राजनीति के प्रमुख स्तंभ रहे हैं। उन्होंने पहले दलितों, महादलितों, महिलाओं और पिछड़ों के लिए कई योजनाएं शुरू कीं। अब पसमांदा मुसलमानों की ओर रुख करना उनकी सामाजिक न्याय नीति का अगला चरण माना जा रहा है।

इसके दो प्रमुख उद्देश्य हो सकते हैं:

  1. राजनीतिक प्रतिनिधित्व का संतुलन: मुसलमानों के भीतर अशराफ तबकों का वर्चस्व खत्म कर, पसमांदा तबकों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व देना।
  2. सामाजिक न्याय का विस्तार: हिंदू पिछड़ों की तरह मुस्लिम पिछड़ों को भी सरकारी योजनाओं का पूरा लाभ दिलाना।

राजनीतिक प्रतिक्रिया:

राजद और कांग्रेस जैसे दलों ने आयोग के गठन का स्वागत किया, लेकिन इसे राजनीतिक स्टंट भी कहा।

भाजपा ने भी हाल के वर्षों में पसमांदा मुद्दों पर ध्यान देना शुरू किया है, जिससे यह मुद्दा अब अखिल भारतीय विमर्श बनता जा रहा है।

चुनौतियाँ और रास्ता आगे:

  1. जातीय गणना और वर्गीकरण: पसमांदा समुदायों की सही पहचान और उनकी संख्या तय करना एक चुनौती है।
  2. आंतरिक भेदभाव: मुसलमानों के भीतर अशराफ तबकों का विरोध और सत्ता पर पकड़ इस बदलाव को कठिन बना सकती है।
  3. राजनीतिक इच्छाशक्ति: आयोग की सिफारिशों को लागू करने में ईमानदारी जरूरी होगी।
    बिहार में पसमांदा आयोग का गठन एक ऐतिहासिक कदम है जो मुस्लिम समाज के भीतर सामाजिक न्याय को मजबूत कर सकता है। अगर यह पहल सही दिशा में जाती है, तो इसका असर सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह देश भर में पसमांदा आंदोलन को नई ऊर्जा देगा। नीतीश कुमार ने एक नई बहस की शुरुआत की है – अब देखना यह है कि इसे ज़मीन पर कैसे उतारा जाता है।
    अगर आप चाहें तो मैं इस लेख को पीडीएफ या वर्ड फॉर्मेट में भी दे सकता हूँ, या इसे और विस्तार में लेकर चल सकते हैं (जैसे: आयोग के संभावित चेयरमैन, बजट, समयसीमा, आदि)।
    इरफान जामियावाला
    आल इंडिया पसमांदा बेदारी कारवाँ,
Umesh Solanki

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