यह महीना मज़लूमों के अंदर उम्मीद की किरण पैदा करता है और ज़ालिम के खिलाफ़ आवाज़ उठाने का हौसला देता है।

दुनिया के सारे कैलेन्डर नये साल के साथ ख़ुशियों से भरा पैग़ाम ले कर आते हैं। लेकिन सिर्फ़ एक इस्लामी कैलेन्डर ऐसा है जो नये साल के साथ ग़म का पैग़ाम ले कर आता है। यह गम वो गम है जो सोते हुए इन्सान को झिंझोड़ता है।
मोहर्रम सिर्फ़ एक महीने का नाम नहीं है बल्कि आज मोहर्रम नाम है एक आंदोलन का, भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आंदोलन, ना इन्साफ़ी के खिलाफ़ आंदोलन का, बुराइयों के खिलाफ आंदोलन का।
इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) की यह क़ुर्बानी नाइन्साफ़ी को ख़त्म करने के लिए थी। इसी लिए हर साल मुहर्रम में इस क़ुर्बानी की याद सिर्फ मुसलमान ही नहीं मनाते बल्कि हर वो इन्सान मनाता है जो इन्साफ़ पसन्द है।
मज़लूमों के अंदर उम्मीद की किरण पैदा करता है और ज़ालिम के खिलाफ़ आवाज़ उठाने का हौसला देता है। अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहौ अलैही वसल्लम ने इस महीने को अल्लाह का महीना कहा है।
मोहर्रम इस्लामी साल का पहला महीना है जो चाँद के हिसाब से चलता है। जिसे हिजरी साल भी कहा जाता हैं, आज से तक़रीबन 1400 साल पहले की बात है, सन् 61 हिजरी के मोहर्रम का महीना था।
जब हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के नवासे, इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) को उनके 72 साथियों के साथ बहुत बेदर्दी से कर्बला, इराक़ के बयाबान में, ज़ालिम यज़ीदी फ़ौज ने शहीद कर दिया था।
यज़ीद ज़ालिम बादशाह मज़हब के नाम पर बुरी बातें फैलाना चाहता था। और अपनी अय्याशी और ज़ुल्म व सितम को इस्लाम का नाम देना चाहता था।
ज़ालिम बादशाह को मालूम था कि वह अपने इस इरादे में तब तक कामयाब नहीं हो सकता जब तक हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलेही वसल्लम.) के नवासे इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) का समर्थन ना मिल जाए। यही सोचकर यज़ीद ने हुक्म दिया कि इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम.) से समर्थन लिया जाए और अगर वह इनकार करें तो उन्हें क़त्ल कर दिया जाये।
यज़ीद के खिलाफ कोई भी खड़े होने की हिम्मत नहीं कर रहा था। ऐसे में इमाम हुसैन अपने 72 साथियों के साथ उठ खड़े हुए और यज़ीद को अपने नाजायज़ मक़सद में कामियाब नहीं होने दिया।